December 6, 2025

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बेहतर प्रशासन के लिए सचेत करता है उपन्यास “माली”

प्रखर राष्ट्रवाद न्यूज:- बेहतर प्रशासन के लिए सचेत करता है उपन्यास “माली””अपने मातहत लोगों के एप्रोच को देखकर उनका मूल्यांकन करना या काम देना अवसरवादी प्रशासन है और उसके बाद भी तालियों की अपेक्षा करना… प्रशासन में मानवीयता होनी चाहिए तभी वो मानव के काम का है… प्रशासनिक संबंधों के लिए भी मूल्य होने चाहिए, श्रेय लेने की होड़ से दूर रहकर धैर्य का परिचय देना चाहिए…।” ये लाइनें हैं उपन्यास “माली” की। ऐसा उपन्यास जिसमें प्रशासन को विषय बनाया गया है और लोकसेवकों के कार्यशैलियों को उजागर किया गया है। इसमें नौकरशाहों की कथा-व्यथा को साहित्यिक अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।केवल अपने ग्रोथ के लिए कार्य करनेवाली मल्टीनेशनल कंपनियों के हथकंडो को सामने लाने का प्रयास किया गया है।

इन कंपनियों को लाभ पहूंचाने नेताओं और अफसरों को कथानक में स्थान दिया गया है। प्रशासन, वर्तमान व्यवस्था का संचालक है। प्रशासन, नियमों का गुच्छ होते भी मानवीय व्यवहार से प्रभावित होता है। धनलोलुपता, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार में मध्यवर्ग-उच्चवर्ग ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दास बन चुके नौकरशाह और जनप्रतिनिधि भी मुखौटा लगाकर शामिल हैं। एक ओर पैसा, प्रशासन और प्रभुत्व के उन्माद ने आम आदमी को निगल लिया है वहीं दूसरी ओर पैसा, प्रशासन एवं प्रभुत्व की लालसा ने सदाचार और सज्जनता को ग्रस लिया है। अपने आरंभिक जीवन के कठिन परिश्रम की पूर्ति के लिए कई महापुरुष पद प्राप्त कर सप्तपीढ़ियों के लिए धन उपार्जित करते हैं। मनुष्य गुण और दूर्गुण दोनों को धारण करता है, किंतु विकट परिस्थितियों से जन्मे आत्मद्वन्द्व को जीतकर ही उसका व्यक्तित्व विस्तार को पाता है। प्रस्तुत उपन्यास के पात्र इन्हीं मानसिक स्थितियों को जी रहे हैं।इस उपन्यास में वर्तमान नौकरशाही के कई पक्षों को उजागर किया गया है। प्रशासन और राजनीति के सकारात्मक और नकारात्मक पहलूओं को स्पष्ट किया गया है। स्त्री स्वातंत्र्य सहित कई ज्वलंत बिन्दुओं को स्पर्श किया गया है। उपन्यास की यथार्थपरकता जहाँ हमें आज के समय से साक्षात्कार कराती है वहाँ यह आसन्न संकटों के प्रति सचेत भी करती है।

प्रशासन से हर व्यक्ति किसी न किसी रुप से जुड़ा होता है। इसलिए उसे नौकरशाहों से भी काम पड़ता है। सच तो यह है कि नौकरशाहों के बिना प्रशासन को नहीं चलाया जा सकता है। इसके बाद भी नौकरशाहों के कार्यों की समीक्षा हर कोई करने का प्रयास करता है। भारत में अंग्रेजी शासन के समय से नौकरशाही चल रही है। ‘नौकरशाही’ एक ऐसा शब्द है, जिसका प्रयोग पहले अनादर और घृणा के साथ किया जाता है, इस शब्द में एक प्रकार के दुरुपयोग की गंध मिलती है।असैनिक कर्मचारियों की आलोचना तथा निंदा करते समय ही इस शब्द का प्रयोग किया जाता था नौकरशाही ही वह व्यवस्था है, जिसमें सरकारी कार्यों का संचालन एवं निदेशन उन लोगों द्वारा किया जाता है, जो जनहित से जुड़कर विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और कानून का अक्षरशः पालन करनेवाले होते हैं। इस व्यवस्था के आलोचक कहते हैं कि इसके अंतर्गत कर्मचारी अपना उत्तरदायित्व जनता के प्रति तनिक भी नहीं समझते, जबकि उनका उद्देश्य जनता की भलाई करना ही होता है।

ये अपने को उच्चतर पदाधिकारी के प्रति उत्तरदायी समझते हैं और उनका काम निर्जीव मशीन की तरह पदसोपान विधि द्वारा चलता रहता है। नौकरशाह या लोकसेवक से मर्यादित व्यवहार की उम्मीद भी की जाती है। लेकिन कई बार ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जिसमें लोकसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और क्षुद्रताओं के कारण शासकीय सदाचार का पालन नहीं करता है। इससे लोकसेवकों के साथ सरकारी तंत्र की भी किरकिरी होती है। देश-प्रदेश में अक्सर ऐसी घटनाएं होती रहती हैं जैसे एसडीएम ज्योति मौर्य प्रकरण। यह विषय अब साहित्य से अछूता नहीं रहा। कई पत्रकारों और साहित्यिकारों ने इस विषय पर अपनी लेखनी चलाई है। आजकल इस विषय पर आने वाली किताब “माली ” की चर्चा है। माली एक उपन्यास है जिसके लेखक डॉ. दिनेश श्रीवास हैं जो एक प्राध्यापक हैं। उपन्यास का प्रकाशन दिल्ली-एनसीआर के नामी प्रकाशक पुस्तकनामा द्वारा किया जा रहा है। यह उपन्यास नौकरशाही के बारे में जनमानस की अवधारणा, भ्रष्टाचार की मौजूदगी, नवाचार की कमी और व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता पर भी प्रकाश डालती है। लेखक ने ‘सुशासन के लिए कई सूत्र’ भी सुझाए हैं। लेखक ने नौकरशाहों के कथा-व्यथा को साहित्यिक अंदाज में अभिव्यक्त किया है। लोकसेवकों के सार्वजनिक जीवन से लेकर व्यक्तिगत की झांकी इसमें मिलती है। लोकसेवक के व्यक्तिगत संस्कार और क्षुद्रताएं उसके प्रशासनिक व्यवहार को कैसे प्रभावित करते हैं इसमें देखने मिलेगा। इसमें आईएएस, तहसीलदार, डॉक्टर, प्राध्यापक,शिक्षक, पुलिसकर्मी,पत्रकार सभी हैं। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में आनेवाले पत्रकार भी समाज को देख रहे हैं, सचेत कर रहे हैं। सच्चा पत्रकार अपने आदर्शों से डिगता नहीं है।एक ऐसे ही सच्चे पत्रकार की कहानी को यह उपन्यास बयां करती है। लेखक मानता है कि नौकरशाह या लोकसेवक अन्ततः एक मनुष्य है। इसलिए उसमें दूर्गुण हो सकते हैं लेकिन लोकहितार्थ इन दूर्गुणों को परिष्कृत किया जाना चाहिए तभी सुशासन संभव है।

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